Chemistry for beginners. रासायनिक विज्ञान।

 

रासायनिक विज्ञान(Chemistry for beginners2020)

The following topic areas are the most basic concepts that a sucessful chemistry student needs to master:
  • Chemical Nomenclature(this unit required for credit)
  • Atomic Structure.
  • Periodic Table.
  • Lewis Structure.
  • Chemical Reactions.
  • Stoichiometry.
  • Acid-Base Chemistry.



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Chemistry for beginners 


रसायन विज्ञान (अंग्रेज़ी:Chemistry) विज्ञान की एक प्रमुख शाखा है, जिसके अन्तर्गत पदार्थों के गुण, संघटन, संरचना तथा उनमें होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि रसायन विज्ञान का विकास सर्वप्रथम मिस्र देश में हुआ था। प्राचीन काल में मिस्रवासी काँच, साबुन, रंग तथा अन्य रासायनिक पदार्थों के बनाने की विधियाँ जानते थे तथा इस काल में मिस्र को केमिया कहा जाता था। रसायन विज्ञान, जिसे अंग्रेज़ी में 'केमिस्ट्री' कहते है की उत्पत्ति मिस्र में पायी जाने वाली काली मिट्टी से हुई। इसे वहाँ के लोग केमि कहते थे। प्रारम्भ में रसायन विज्ञान के अध्ययन को केमिटेकिंग कहा जाता था। रसायन विज्ञान के अन्तर्गत द्रव्य के संघटन तथा उसके अति सूक्ष्म कणों की संरचना का अध्ययन किया जाता है। इसके अतिरिक्त द्रव्य के गुण, द्रव्यों में परस्पर संयोग के नियम, ऊष्मा आदि ऊर्जाओं का द्रव्य पर प्रभाव, यौगिकों का संश्लेषण, जटिल व मिश्रित पदार्थों से सरल व शुद्ध पदार्थ अलग करना आदि का अध्ययन भी रसायन विज्ञान के अन्तर्गत किया जाता है। आवर्त सारणी में सात क्षैतुज पंक्तियाँ होती हैं जिन्हें आवर्त कहते हैं। प्रीस्टले, शीले, व लेवायसिये ने रसायन विज्ञान के विकास में अत्यधिक योगदान दिया। लोवायसिये को तो आधुनिक रसायन विज्ञान का जन्मदाता भी कहा जाता है। कार्बनिक रसायन, जिसमें मुख्यतः कार्बन व उससे बनने वाले पदार्थों का अध्ययन किया जाता है, के विकास में कोल्वे, वोल्हार व पाश्तुर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

रसायन विज्ञान की मुख्यतः दो शाखाएँ है-


अकार्बनिक रसायन विज्ञान: इसके अंतर्गत सभी अकार्बनिक तत्त्वों एवं उनके यौगिकों का अध्ययन किया जाता है।
कार्बनिक रसायन विज्ञानइसके अंतर्गत कार्बन के यौगिकों का अध्ययन किया जाता है।
रसायन विज्ञान के अध्ययन को सरल बनाने के लिए उसे कई शाखाओं में बाँटा गया है, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं-


भौतिक रसायन: इसके अंतर्गत रासायनिक अभिक्रिया के नियमों तथा सिद्धांतों का अध्ययन किया जाता है।
औद्योगिक रसायन: इसमें पदार्थों का वृहत् परिमाण में निर्माण करने से संबंधित नियमों, अभिक्रियाओं, विधियों आदि का अध्ययन किया जाता है।


जैव रसायन: इसके अंतर्गत जीवधारियों में होने वाले रासायनिक अभिक्रिया तथा जन्तुओं एवं वनस्पतियों से प्राप्त पदार्थों का अध्ययन किया जाता है।
कृषि रसायन: इसके अंतर्गत कृषि से संबंधित रसायन जैसे जीवाणुनाशक, मृदा के संघटन आदि का अध्ययन किया जाता है।
औषधि रसायन: इसके अंतर्गत मनुष्य के प्रयोग में आने वाली औषधियाँ, उनके संघटन तथा बनाने की विधियों का अध्ययन किया जाता है।


विश्लेषिक रसायन: इसमें विभिन्न पदार्थों की पहचान, आयतन व मात्रा का अनुमान किया जाता है।
इतिहास
पंद्रहवीं-सोलहवीं शती तक यूरोप और भारत दोनों में एक ही पद्धति पर रसायन शास्त्र का विकास हुआ। सभी देशों में अलकीमिया का युग था। पर इस समय के बाद से यूरोप में[1] रसायन शास्त्र का अध्ययन प्रयोगों के आधार पर हुआ। प्रयोग में उत्पन्न सभी पदार्थों को तौलने की परंपरा प्रारंभ हुई। कोयला जलता है, धातुएँ भी हवा में जलती हैं। जलना क्या है, इसकी मीमांसा हुई। मालूम हुआ कि पदार्थ का हवा के एक विशेष तत्व ऑक्सीजन से संयोग करना ही जलना है। लोहे में जंग लगता है। इस क्रिया में भी लोहा ऑक्सीजन के साथ संयोग करता है। रासायनिक तुला के उपयोग ने रासायनिक परिवर्तनों के अध्ययन में सहायता दी। पानी के जल-अपघटन से हेनरी कैवेंडिश (1731-1810 ई.) ने 1781 ई. में हाइड्रोजन प्राप्त किया। जोज़ेफ ब्लैक (1728-1799ई.) ने कार्बन डाइऑक्साइड और कार्बोनेटों का प्रयोग किए (1754 ई.)। जोज़ेफ प्रीस्टलि (1733-1804 ई.) शेले और लाव्वाज़्ये (1743-1794 ई.) ने 1772 ई. के लगभग ऑक्सीजन तैयार किया, राबर्ट बॉयल ने तत्वों की परिभाषा दी, जॉन डाल्टन (1766-1844 ई.) ने परमाणुवाद की स्पष्ट कल्पना सामने रखी, आवोगाद्रो 1776-1856 ई.), कैनिज़ारो (1826-1910 ई.) आदि ने अणु और परमाणु का भेद बताया। धीरे-धीरे तत्वों की संख्या बढ़ने लगी। अनेक धातु और अधातु तत्व इस सूची में संमिलित किए गए। बिखरे हुए तत्वों का वर्गीकरण न्यूलैंड्स (1963 ई.) लोथरमेयर (1830-1895 ई.) और विशेषतया मेंडेलीफ ने अनेक अप्राप्त तत्वों के संबंध में भविष्यवाणी भी की। बाद में वे तत्व बिलकुल ठीक वैसे ही मिले, जैसा कहा गया था। डेवी (1778-1829 ई.) और फैराडे 1791-1867 ई.) ने गैसों और गैसों के द्रवीकरण पर काम किया। इस प्रकार रसायन शास्त्र का सर्वतोमुखी विकास होने लगा।

रसायन विज्ञान का विकास
जैसे-जैसे समाज का विकास हुआ, रसायन विज्ञान का विकास भी उसी के साथ हुआ। प्रकृति में पाई पायी जाने वाली अगाध संपत्ति और उसका उपभोग कैसे किया जाए, इस आधार पर इसकी नींव पड़ी। घर, भोजन, वस्त्र, नीरोग रहने की आकांक्षा और आगे चलकर विलास की सामग्री तैयार करने की प्रवृत्ति ने इस शास्त्र के व्यावहारिक रूप को प्रश्रय दिया। अर्थर्वांगिरस ने इस देश में काष्ठ और शिलाओं के मंथन से अग्नि उत्पन्न की। अग्नि सभ्यता और संस्कृति की केंद्र बनी। ग्रीक निवासियों की कल्पना में प्रोमीथियस पहली बार अग्नि को देवताओं से छीनकर मानव के उपयोग के लिये धरती पर लाया। भारत में और भारत से बाहर लगभग सभी प्राचीन देशों, चीन, अरब, यूनान में भी मनुष्य की दो चिर आकांक्षाएँ थीं।

किस प्रकार रोग, जरा और मृत्यु पर विजय प्राप्त की जाय अर्थात संजीवनी की खोज या अमरफल की प्राप्ति
लोहे के समान अधम धातुओं को कैसे स्वर्ण के समान मूल्यवान धातुओं को कैसे स्वर्ग के समान मूल्यवान धातुओं में परिगत किया जाए।
मनुष्य ने देखा कि बहुत से पशु प्रकृति में प्राप्त बहुत सी जड़ी-बूटियाँ खाकर अपना रोग दूर कर लेते हैं। मनुष्य ने भी अपने चारों ओर उगने वाली वनस्पतियों की मीमांसा की और उनसे अपने रोगों का निवारण करने की पद्धति का विकास किया। महर्षि भरद्वाज के नेतृत्व में हिमालय की तलहटी में वनस्पतियों के गुणधर्म जानने के लिए आज से 2,5 00 वर्ष पूर्व एक महान संमेलन हुआ, जिसका विवरण चरक संहिता में मिलता है। पिप्पली, पुनर्नवा, अपामार्ग आदि वनस्पतियों का उल्लेख अथर्ववेद में है। यजुर्वेद में स्वर्ण, ताम्र, लोह, अपु या वंश तथा सीस धातुओं की ओर संकेत है। इन धातुओं के कारण धातुकर्म विद्या का विकास लगभग सभी देशों में हुआ। धीरे-धीरे इस देश में बारह से आया और माक्षिक तथा अभ्रक इस देश में थे ही, जिससे धीरे-धीरे रसशास्त्र का विकास हुआ। सुश्रुत के समय शल्यकर्म का विकास हुआ और वर्गों के उपचार के निमित्त क्षारों का उपयोग प्रारंभ हुआ और लवणों का उपयोग चरक काल से भी पुराना है। सुश्रुत में कॉस्टिक या तीक्ष्ण क्षारों को सुधा-शर्करा (चूने के पत्थर) के योग से तैयार करने का उल्लेख है। इससे पुराना उल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है। मयूर तुत्थ (तृतीया), कसीस, लोहकिट्ट सौवर्चल (शोरा), टंकण (सुहागा), रसक दरद शिलाजीत, गैरिक और वाद को गंधक के प्रयोग ने रसशास्त्र में एक नए युग को जन्म दिया। नागार्जुन पारद-गंधक-युग का सबसे महान रसवेत्ता है। रसरत्नाकर और (रसार्णव) ग्रंथ उसकी परंपरा के मुख्य ग्रंथ हैं। इस समय अनेक प्रकार की मूषाएं, अनेक प्रकार के पातन यंत्र, स्वेदनी यंत्र, बालुकायंत्र, कोष्ठी यंत्र और पारद के अनेक संस्कारों का उपयोग प्रारंभ हो गया था। धातुओं के भस्म और उनके सत्व प्राप्त करने की अनेक विधियाँ निकाली गई और रोगोपचार में इनका प्रयोग हुआ। समस्त भोज्य सामग्री का भी वात, कफ, पित्त निवारण की दृष्टि से परीक्षण हुआ। आसव, कांची, अम्ल, अवलेह, आदि ने रसशास्त्र में योग दिया।
भारत में वैशेषिक दर्शन के आचार्य कराणद ने द्रव्य के गुणधर्मों की मीमांसा की। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पंचतत्वों ने विचारधारा को इतना प्रभावित किया कि आजतक ये लोकप्रिय हैं। पंचज्ञानेंद्रियों के पाँच विषय थे। गंध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द और इनसे क्रमशः संबंध रखने वाले ये पाँच तत्व 'पृथिव्या-पस्तेजोवायुराकाश'[2] थे। (कणाद) भारतीय परमाणुवाद के जन्मदाता हैं। द्रव्य परमाणुओं से मिलकर बना है। प्रत्येक द्रव्य के परमाणु भिन्न-भिन्न हैं। ये परमाणु गोल और अविभाज्य हैं। दो परमाणु मिलकर द्वयरगुक और फिर इनसे त्रयतगुक आदि बनते हैं। पाक या अग्नि के योग से परिवर्तन होते हैं। रासायनिक परिवर्तन किस क्रम में होते हैं, इसकी विस्तृत मीमांसा कणाद दर्शन के परवर्ती आचार्यों ने की।

रसायन विज्ञान के अंग
इस पश्चिमी रसायन के दो उपांग थे: अकार्बनिक[3] और कार्बनिक।[4] शर्करा, वसा, मोम, फलों मे पाए जाने वाले अम्ल, प्रोटीन, रंग आदि सब सजीव रसायन के अंग थे। लोगों का विश्वास था कि ये पदार्थ प्रकृति स्वयं अपनी प्रयोगशाला में सजीव चेतना के योग से तैयार करती है और ये प्रयोगशाला में सजीव चेतना के योग से तैयार करती है और ये प्रयोगशाला में संश्लेषित नहीं हो सकते। रासायनज्ञों ने इन पदार्थों का विश्लेषण प्रारंभ किया। कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन और ऑक्सीजन, इन चार तत्वों के योग से बने हुए सहस्त्रों यौगिकों से रसायनज्ञों का परिचय हुआ। पता चला कि किसी यौगिकों को समझने के लिये केवल इतना ही आवश्यक नहीं है कि इस यौगिकों में कौन-कौन से तत्व किस अनुपात में हैं, यह भी जानना आवश्यक है कि यौगिकों के अणु में इन तत्वों के परमाणु किस क्रम में सज्जित हैं। इनका रचनाविन्यास जानना आवश्यक हो गया। फ्रैंकलैंड (1825-1897 ई.) ज़्हेरार लीबिख, द्यूमा, बर्ज़ीलियस आदि रसायनज्ञों ने इन यौगिकों में पाए जाने वाले मूलकों की खोज की जैसे मेथिल, एथिल, मेथिलीन, कार्बोक्सिल इत्यादि। इस प्रकार सजीव पदार्थों के आधार की ईटों का पता चल गया, जिनके रचनाविन्यास द्वारा विभिन्न यौगिकों की विद्यमानता संभव हुई। केकूले ने (1865 ई.) में खुली शृंखला के यौगिकों के साथ-साथ बंद शृंखला के यौगिकों ने कार्बनिक रसायन में एक नये युग का प्रवर्तन किया। नेफ्थालीन, क्विनोलीन, ऐंथ्रासीन आदि यौगिकों में एक से अधिक वलयों का समावेश हुआ। कार्बनिक रसायन का एक महत्त्वपूर्ण युग वलर की यूरिया- संश्लेषण- विधि से आरंभ होता है। 1828 ई. में उन्होंने अकार्बनिक या अजैव रसायन के ढंग की विधि से अमोनियम सायनेट, (NH4 CNO) बनाना चाहा। उसने देखा कि अमोनियम सायनेट ताप के भेद से अनुकूल परिस्थितियों में यूरिया (H2 N. CO. NH2) में स्वतः परिणत हो जाता है। अब तक यूरिया केवल जैव जगत का सदस्य माना जाता था। वलर ने अपने इस संश्लेषण से यह सिद्ध कर दिया कि जैव रसायन में जिन यौगिकों का प्रतिपादन किया जाता है, उनका भी संश्लेषण रासायनिक विधियों से प्रयोगशालाओं में हो सकता है। इस नवीन कल्पना ने जैव रसायन को एक नया रूप दिया। जैव रसायन मात्ररह गया और इसलिए अजैव रसायन को हम लोग अकार्बनिक रसायन कहने लगे। वैसे तो कार्बनिक और अकार्बनिक दोनों रसायनों के बीच का भेद अब सर्वथा मिट चुका है।

रसायन विज्ञान का क्षेत्र दूसरे विज्ञानों के समंवय से प्रति दिन विस्तृत होता जा रहा है। फलतः आज हम भौतिक एवं रसायन भौतिकी, जीव रसायन, शरीर-क्रिया-रसायन, सामान्य रसायन, कृषि रसायन आदि अनेक नवीन उपांगों के नाम भी सुनते हैं। विज्ञान का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमें रसायन की विशिष्ट नवीनताओं का प्रस्फुटन न हुआ हो।

द्रव्य निर्माण के मूल तत्व
संसार में इतने विभिन्न पदार्थ इतनी विभिन्न विधियों से विभिन्न परिस्थियों में तैयार होते रहते हैं कि आश्चर्य होता है। जो भोजन हम ग्रहण करते हैं, वह शरीर में रुधिर, मांस, वसा विविध ग्रंथिरस, अस्थि, मज्जा, मलमूत्र आदि में परिणत होता है। भोज्य पदार्थ वनस्पतियों के शरीर में तैयार होते हैं। भोजन के सृजन और विभाजन का चक्र निरंतर चलता रहता है। यह सब बताता है कि प्रकृति कितनी मितव्ययी है। रासायनिक अभिक्रियाओं का आधार द्रव्य की अविनाशिता का नियम है। रसायनज्ञ इस आस्था पर अपने रासायनिक समीकरणों का निर्माण करता है कि द्रव्य न तो बनाया जा सकता है और न इसका विध्वंस/नष्ट हो सकता है।

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